Kya Hanuman Ji Bandar The??
हनुमान जी बंदर नही थे। अगर आप वैदिक सभ्यता के बारे में जानकारी रखते हैं या फिर आपने SANATAN DHARMA के ग्रंथो को पढ़ा हैं तो आपको ज्ञात होना चाहिए की पुरातन काल में कई ऐसी सभ्यताएं इस पृथ्वी पर निवास कर चुकी हैं जिनके बारे में हम जानते ही नहीं थे और अभी ARCIOLOGICAL DEPARTMENT पुरातन विभाग और विज्ञान की अतिआधुनिक मशीनों द्वारा गहन अध्यन से पता चला हैं की ऐसी बहुत सी सभ्यताएं इस पृथ्वी पर पहले भी इंसानों के साथ रह चुकी हैं।
पुरातन ग्रंथो और प्राचीन पुस्तको से पता चलता हैं की नरवानर नाम के प्राणी भी अस्तित्व में रह चुके हैं। नरवानर से मतलब हैं की ऐसे प्राणी जिनकी शारीरिक संरचना मनुष्य से थोड़ी अलग होती हैं।
नरवानर की शारीरिक संरचना में इंसानों से अलग उनके मूंह और पूंछ का होना उन्हे इंसानों से अलग बनाता था जबकि सामान्य रूप से शरीर इंसानों जैसा ही होता था सिवाय मुंह और पूंछ के।
मुंह और पूंछ के होने से किसी को बंदर नहीं कहा जा सकता हैं।
आधुनिक इतिहासकारों ने हमारे पुरातन ग्रंथो को अनुवाद करते समय गलत व्याख्या की जिसके कारण आज भी आधे से ज्यादा लोग उन्हे बंदर ही मानते हैं। शब्दो का सही अर्थ पता नही होने के कारण अनुवादकर्ताओ से ये गलतियां हुई हैं। अगर आपको सनातन इतिहास के बारे में जानना हैं तो आप सनातन ग्रंथो को उनकी मूल भाषा में ही समझने का प्रयास करे तभी आपको असली अर्थ पता चलेगा। किसी शब्द को किस भावार्थ में कहा गया हैं ये जानना जरूरी हैं।
Vanar Kon Hn??
वानर- वानर कोन होते हैं ?? इसको संस्कृत के इस श्लोक में अच्छे से समझाया गया हैं कृपया श्लोक को समझने की कोसिस करे।
“वने भवं वानम्, राति (रा आदाने) गृह्णाति ददाति वा। वानं वन सम्बन्धिनं फलादिकं गृह णाति ददाति वा” – इस श्लोक का मतलब हैं जो वन में उत्पन्न होने वाले फलादि खाता है वह वानर कहलाता है । वर्तमान में जंगलों व पहाड़ों में रहने और वहाँ पैदा होने वाले पदार्थों पर निर्वाह करने वाले ‘गिरिजन’ कहाते हैं। इसी प्रकार वनवासी और वानप्रस्थ वानर वर्ग में गिने जा सकते हैं। वानर शब्द से किसी योनि विशेष, जाति, प्रजाति अथवा उपजाति का बोध नहीं होता।
किसी भी पुरातन ग्रंथ में ये नही लिखा हुआ की हनुमान जी बंदर थे। बंदर से मेरा मतलब आज के उस प्राणी से हैं जिसे हम बंदर(MONKEY) 🐒 कहते हैं।
जिसके द्वारा जाति एवं जाति के चिह्नों को प्रकट किया जाता है, वह आकृति है । प्राणिदेह के अवयवों की नियत रचना जाति का चिह्न होती है। सुग्रीव, बालि आदि के जो चित्र देखने में आते हैं उनमें उनके पूंछ लगी दिखाई जाती है, परन्तु उनकी स्त्रियों के पूंछ नहीं होती। वर्तमान के कर्नाटक राज्य में पुरातन किष्किंधा राज्य के अवशेष मिले हैं और उसकी रिसर्च से ये तो साबित नही हुआ की इस जगह पर जो सभ्यता निवास करती थी वो बंदर थे। नर-मादा में इस प्रकार का भेद अन्य किसी वर्ग में देखने में नहीं आता। इसलिए पूंछ के कारण हनुमान आदि को बन्दर नहीं माना जा सकता।
Hanuman Ji Or Bhagwan Ram Ki Pahli Meeting
हनुमान जी और भगवान राम की पहली मुलाकात उस समय हुई थी जब भगवान राम माता सीता की खोज में माता शबरी से वानरराज सुग्रीव के बारे में पता लगने के बाद उनसे मिलने के लिए ऋष्यिमुक पर्वत पर जा रहे थे। ये पर्वत आज भी भारत के कर्नाटक राज्य में अस्तित्व में हैं और ये उन लोगों पर एक तमाचा हैं जो रामायण को काल्पनिक बताते हैं। हनुमान से रामचन्द्र जी की पहली बार भेट ऋष्यमूक पर्वत पर हुई थी। दोनों में परस्पर बातचीत के बाद रामचन्द्र जी लक्ष्मण से बोले –
“नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः।
नासामवेदविदुषः शक्यमेवं प्रभाषितुम्॥
नूनं व्याकरणं कृत्समनेन बहुधा श्रुतम्।
बहुव्याहरतानेन न किञ्चिदपशब्दितम्॥
संस्कारक्रमसंपन्नामद्र तामविलम्बिताम्।
उच्चारयति कल्याणी वाचं हृदयहारिणीम्॥”
इस पूरे वृतांत के व्याख्या कुछ इस प्रकार हैं,
“ऋग्वेदके अध्ययन से अनभिज्ञ और यजुर्वेद का जिसको बोध नहीं है तथा जिसने सामवेद का अध्ययन नहीं किया है, वह व्यक्ति इस प्रकार परिष्कृत बातें नहीं कर सकता। निश्चय ही इन्होंने सम्पूर्ण व्याकरण का अनेक बार अभ्यास किया है, क्योंकि इतने समय तक बोलने में इन्होंने किसी भी अशुद्ध शब्द का उच्चारण नहीं किया है। संस्कारसंपन्न, शास्त्रीय पद्धति से उच्चारण की हुई इनकी कल्याणी वाणी हृदय को हर्षित कर रही है।”
भगवान महादेव (MAHADEV) का रुद्रावतार होने के कारण और देवताओं से मिले दिव्य ज्ञान के कारण हनुमान जी बाल्यकाल से ही अति विद्वान थे और समय समय पर अपनी इस प्रतिभा का परिचय वो बचपन से ही करवाते रहे थे।
वस्तुतः हनुमान अनेक भाषाविद् थे। वह अवसर के अनुकूल भाषा का व्यवहार करते थे, इसका संकेत हमें सुन्दर काण्ड में मिलता है। लंका में पहुंच कर हनुमान ने सीता को अशोक वाटिका में राक्षसियों के बीच बैठे देखा । वृक्षों की शाखाओं के बीच छुपकर बैठे हनुमान सोचने लगे –
“यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम्।
रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति॥
सेयमालोक्य मे रूपं जानकी भाषितं तथा।
रक्षोमिस्त्रासिता पूर्व भूयस्त्रासं गमिष्यति॥
ततो जातपरित्रासा शब्दं कुर्यान्मनिस्विनी।
जानाना मां विशालाक्षी रावणं कामरूपिणम्॥”
यदि द्विजाति (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) के समान परिमार्जित संस्कृत भाषा का प्रयोग करूंगा तो सीता मुझे रावण समझकर भय से संत्रस्त हो जाएगी। मेरे इस वनवासी रूप को देखकर तथा नागरिक संस्कृत को सुनकर पहले ही राक्षसों से डरी हुई यह सीता और भयभीत हो जाएगी। मुझको कामरूपी रावण समझ कर भयातुर विशालाक्षी सीता कोलाहल आरम्भ कर देगी। इसलिए –
“अहं त्वतितनुश्चैव वानरश्च विशेषतः।
वाचं चोदहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम्॥”
मैं सामान्य नागरिक के समान परिमार्जित भाषा का प्रयोग करूँगा।
हनुमान जी और रामायण काल और महाभारत काल में वर्णित वानर आज के समय के बंदर से अलग होते थे। वानर सनातन सभ्यता को मानते थे और उनके सांस्कृतिक क्रियाकलाप बिल्कुल शास्त्रवृत थे।
महर्षि वाल्मिकी जे ने रामायण RAMAYAN महाकाव्य में रामायण के हर एक चरित्र के बारे में विस्तार से बताया हैं।
आज के इस लेख में हम महर्षि वाल्मिकी द्वारा रचित रामायण के कुछ श्लोक से वानरों के बारे में समझने का प्रयत्न करेंगे।
वाल्मिकी रामायण में वर्णित श्लोकों से प्रतीत होता है कि लंका की सामान्य भाषा संस्कृत थी, जबकि जन साधारण संस्कृत से भिन्न, किन्तु तत्सम अथवा तद्भव, शब्दों का व्यवहार करते थे। कुछ टीकाकारों के अनुसार हनुमान ने अयोध्या के आस-पास की भाषा से काम लिया था।
बालिपुत्र अंगद के विषय में बाल्मीकि ने लिखा है –
“बुद्धया ह्मष्टाङ्गयायुक्तं चतुर्बलसमन्वितम् ।
चतुर्दशगुणं मेने हनुमान् बालिनः सुतम्॥”
हनुमान् बालिपुत्र अंगद को अष्टाङ्ग बुद्धि से संपन्न, चार प्रकार के बल से युक्त और राजनीति के चौदह गुणों से युक्त मानते थे।
अष्टांग बुद्धि क्या हैं??-
अष्टांग बुद्धि के बारे में इस श्लोक के माध्यम से और बेहतर तरीके से समझ सकते हैं।
“शुश्रुषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा।
ऊपापोहार्थ विज्ञानं तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः॥ “
सुनने की इच्छा, सुनना, सुनकर धारण करना, ऊहापोह करना, अर्थ या तात्पर्य को ठीक-ठीक समझना, विज्ञान व तत्त्वज्ञान-बुद्धि के ये आठ अंग हैं।
चतुर्बल – साम, दाम, भेद, दण्ड। शत्रु को वश में करने के लिए नीति शास्त्र में चार उपाय बताए गए हैं, उन्हीं को यहाँ चार प्रकार का बल कहा गया है। किन्हीं-किन्हीं के मत से बाहुबल, मनोबल, उपाय बल और बन्धुबल ये चार बल हैं।
चतुर्दश गुण –
“देशकालज्ञता दाढ्य, सर्वक्लशसहिष्णुता,
सर्वविज्ञानता दाक्ष्यमूर्जः संवृत्तमन्त्रता।
अविसंवादिता शौयं भक्तिज्ञत्वं कृतज्ञता,
शरणागतवात्सल्यममर्षित्वमचापलम्”
▪️1. देशकाल का ज्ञान
▪️2. धृढ़ता,
▪️3. कष्टसहिष्णुता
▪️4. सर्वविज्ञानता
▪️5. दक्षता
,▪️6. उत्साह
▪️7. मन्त्रगुप्ति
▪️8. एकवाक्यता
▪️9. शूरता
▪️10. भक्ति ज्ञान
▪️11. कृतज्ञता
▪️12. शरणागतवत्सलता
▪️13. अमर्षित्व अधर्म के प्रति क्रोध
▪️14. अचपलता=गम्भीरता ।
और बालि की पत्नी एवं अंगद की माता तारा को वाल्मीकि ने ‘मन्त्रवित्’ बताया है। मरते समय बालि ने तारा की योग्यता का बखान करते हुए सुग्रीव को परामर्श दिया –
“सुषेणदुहिता चेयमर्थसूक्ष्मविनिश्चये।
औत्पातिके च विविधे सर्वतः परिनिष्ठिता॥ “
“यदेषा साध्विति ब्रूयात् कार्य तन्मुक्तसंशयम्।
न हि तारामतं किंचिदन्यथा परिवर्तते॥ ”
सुषेण (जिनकी चिकिप्सा से मृतप्राय लक्ष्मण जीवित हो गए थे संजीवनी वाले वैद्य) की पुत्री यह तारा सूक्ष्म विषयों के निर्णय करने तथा नाना प्रकार के उत्पातों के चिह्नों को समझने में सर्वथा निपुण है। जिस कार्य को यह अच्छा बताए, उसे निःसंग होकर करना । तारा की किसी सम्मति का परिणाम अन्यथा नहीं होता।
बालि की अन्त्येष्टि के समय सुग्रीव ने आज्ञा दी – “ओवंदेहिकमार्यस्य क्रियतामनुकूलतः”
मेरे ज्येष्ठ बन्धु आर्य का संस्कार राजकीय नियम के अनुसार शास्त्रानुकूल किया जाए।
तदनन्तर सुग्रीव के राजतिलक के समय सोलह सुन्दर ‘कन्याएँ अक्षत, अंगराज, गोरोचन, मधु, घृत आदि लेकर आई और वेदी पर प्रज्वलित अग्नि में- “मन्त्रपूतेन हविषा हुत्वा मन्त्रविदोजनाः”
मन्त्रोच्चारणपूर्वक हविष्म के द्वारा मन्त्रविद् विद्वानों ने हवन किया।
इस सारे वर्णन और विवरण को बुद्धिपूर्वक पढ़ने के बाद कौन मान सकता है कि हनुमान् और तारा आदि मनुष्य न होकर पेड़ों पर उछल-कूद मचाने वाले बन्दर-बन्दरिया थे?
SANATAN DHARMA को अपमानित करने के लिए वामपंथियो और विदेशी इतिहासकारों ने हमारे धार्मिक ग्रंथों को बहुत गलत तरीके से पेश किया हैं। आज भी अधिकांश लोग केवल अनुवादित रूप को पढ़ने के कारण हमारे गौरवशाली इतिहास जिसे ये वामपंथी लोग काल्पनिक बताते हैं,इसका वास्तविक स्वरूप नही समझ पाए हैं।
सनातन ग्रंथो और वेदों में इस पूरे ब्रह्मांड में जो होता हैं और जिसके होने की संभावना हैं हर चीज की व्याख्या की हैं। विदेशी लोग भारत से प्राप्त ज्ञान का ही प्रयोग कर के इतने प्रसिद्ध और उन्नत हुए हैं। आप खुद सोचिए विज्ञान और विदेशियों द्वारा की गई हर एक खोज 15 वी शताब्दी के बाद की ही क्यों हैं??
क्योंकि 15 शताब्दी के बाद से ही ज्यादतर भारत में आक्रमण हुए हैं और गद्दार जयचंदो जैसे कुछ लोगो के कारण इन लोगो ने हमारे पुरातन धार्मिक ग्रंथों से सब कुछ सिखा और उसका खुद का बताकर प्रचार किया।
जय हिंद जय भारत।🙏🙏